Tuesday, July 19, 2011

लौट रहे हैं रिकार्ड


बा गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकार्ड की नहीं, बात हो रही है काले तवे जैसी रिकार्ड की, जो ग्रामोफोन की तीखी सुइ चुभते ही सुर के मनचाहे तार छेड़ देती। उस्ताद बड़े गुलाम अली खां के आलाप से लेकर विस्मिल्लाह खान की शहनाइ तक, के. एल. सहगल के दर्द भरे नग्मे से लेकर लता बाई के सुरीले फिल्मी गीत तक। कोठे की झंकार से लेकर मोर्चे के मार्चिंग सांग तक, सब कुछ छिपा होता है उस काले तवे पर खिंची वृताकार महीन लकीरों में। बचपन में वाकइ हमारे लिए वह किसी जादू से कम नहीं होता, जब बगैर पंडित जी के आए घर में सत्यनारायण भगवान की कथा गूंजने लगती। हम किसी अजूबे की तरह उस छोटे से मख्मली बक्से को देखते रहते जिसमें लगी चाभी को थोड़ी सी जुम्बिश देते ही उपर का तवा घूमने लगता और उसी के साथ आने लगती मनचाही आवाजें। न कोइ तार, न केबल, न कमरे भर में पसरे ताम-झाम, एकदम पोर्टेबल, चाहें तो नदी के किनारे ले जायें या गर्मी की शाम छत पर। बाद में शायद इसी की पोर्टबिलिटी को ध्यान में रखकर ट्रांजिस्टर से लेकर आइ.पॉड तक के आविष्कार हुए होंगे, लेकिन इन तमाम आधुनिकतम उत्पादों के सामने भी ग्रामोफोन की एक विशेषता ने उसे अतुलनीय बनाए रखा, वह था उसका उर्जा संरक्षण।
              आश्चर्य नहीं कि कइ पुराने आविष्कार, बिजली वाले बड़े रेडियो से लेकर आधे कमरे की जगह घेर लेने वाला दरवाजे लगा ब्लैक एंव व्हाइट टेलीविजन तक पूरी तरह दृश्य से ओझल हो गए, ग्रामोफोन ने अपनी उपस्थिति कायम रखी। वास्तव में समय-सभ्यताएं बदलने के बावजूद इसका वाजिब विकल्प अभी तक हमें हासिल नहीं हो सका है। आज भी सिनेमा या टेलीविजन धारावाहिकों में जब भी परम्परागत अमीरी दिखाइ जानी होती है, ग्रामोफोन बैठक की अनिवार्यता होते हैं। अब तो कइ आधुनिक उत्पादों के विज्ञापनों में भी ग्रामोफोन को युवाओं के स्टेट्स सिंबल के रूप में जोड़ने की कोशिश की जा रही है। वास्तव में कहीं न कहीं ग्रामोफोन हमारी समृद्धि के साथ हमारी समझ को भी प्रतिबिम्वित करता है। किसी अत्याचारी सामंत के महलों की दिवार पर दोनाली बंदूकें भले ही टंगी दिखाइ जाती है, वहां तमाम समृद्धि के बावजूद ग्रामोफोन नहीं होता, ग्रामोफोन दिखाने के साथ ही यह स्टैबलिश हो जाता है, यहां रहने वाला व्यक्ति भावुक, संवेदनशील और संगीत प्रेमी है।
              जाहिर है हमारी संवेदनशीलता का यह प्रतीक समय के झकोरों से हमारी जिंदगी से किनारे तो होता रहा, कभी बाहर नहीं हो सका। आश्चर्य नहीं कि आज नई सदी के पहले दशक के अंत में एक बार फिर ग्रामोफोन के सुर सुनाइ देने लगे हैं। गौरतलब यह भी है कि ग्रामोफोन रिकार्ड का संगीत की दुनिया से बेदखल करने का दम भरनेवाला कैसेट आज खुद बेदखल होने के कगार पर पहुंच चुका है। आइ पॉड के सुविधाजनक संगीत और सीडी के टिकाउपन ने कैसेट और कैसेट रिकार्डर दोनों को ही संगीत के लिए अप्रसांगिक बना दिया है, लेकिन रिकार्डस इन दोनों का मुकाबला करते आज फिर वापस आ रही है तो उसका मुख्य कारण उसमें इन दोनों के गुणों का समावेश है, टिकाउपन भी और पोर्टेब्लिटी भी। सबसे बढ़कर संगीत की बारीकियां का निर्वाह भी।
              संगीत के जानकार बताते हैं कि अत्याधुनिक यंत्रों के डिजीटल संगीत और ग्रामोफोन के संगीत में वही फर्क है जो वास्तविक सितार के बजाय मशीन से सितार की आवाज का संगत लेने में है। सहुलियत के लिए हालांकि बड़े-बड़े संगीतकार अब संगत के लिए मशीन के आवाज का सहारा लेने लगे हैं, लेकिन वे भी मानते हैं कि यह संगीत के साथ इमानदारी नहीं है। रिकार्डिंग के डिजीटल रूपांतरण में कहा जाता है उसकी मानवीय संवेदना का लोप हो जाता है, आवाज मशीनी लगने लगती है, जबकि ग्रामोफोन के रिकार्ड्स में संगीत और सुर अपने स्वाभाविक रूप में होते हैं। सुर के हरेक आलाप के उतार-चढ़ाव का आनन्द आप उठा सकते हैं। शायद इसीलिए आज जब लोग प्लेइंग रिकार्ड्स की नइ खेप आने लगी है उसमें प्राथमिकता शास्त्रीय या क्लासिक संगीत को दी जा रही है। सिर्फ 2010 में इ. एम. आइ. म्यूजिक कंपनी ने शास्त्रीय और सुगम संगीत के 125 से भी अधिक टाइटिल रिलीज किए हैं।
              भारत में हालांकि संगीत को आमतौर से सिनेमा से जोड़कर देखे जाने की परम्परा रही है, लेकिन गौर तलब है कि यहां सिनेमा को आवाज 1931 में मिली, लेकिन संगीत के रिकार्ड का व्यावसायिक निर्माण 1902 में ही शुरू हो गया था। भारत में पहली रिकार्डिंग कंपनी कोलकाता में बनी, तत्कालीन कलकत्ता। भ्रम यह होता है कि शायद इसके पीछे वजह बंगाल का संगीत प्रेम हो, लेकिन वास्तविकता व्यापार की बुनियाद पर टिकी है। रिकार्ड्स की निर्माण प्रक्रिया में एक अनिवार्य तत्व है ‘लाख’। मूल रिकार्डिंग वैक्स या जिंक पर की जाती है, फिर लाख के प्लेट पर प्रेस कर उसकी प्रतिकृति तैयार कर व्यवसायिक उत्पादन होता है। गौर तलब है कि विश्व में लाख के उत्पादन में 75 प्रतिशत भागीदारी अकेले भारत की है, और उसमें भी सर्वाधिक बंगाल की। कहते हैं पहले विश्वयुद्ध के समय में दुनिया भर की रिकार्ड कंपनियां पूरी तरह भारत पर निर्भर हो गई थीं। लाख की उपलब्धता ने बंगाल को पहला रिकार्ड कारखाना दिया 1908 में। कहते हैं उस समय रिकार्ड कंपनी में काम करने वाले मजदूर अपने कारखाने को ‘बाजाखाना’ कहते थे, रिकार्ड के कारखाने के लिए यह भारतीय नाम स्वाभाविक भी था।
              समय-समय पर उत्पादन और क्वालिटी में बेहतरी को ध्यान में रखकर रिकार्ड उत्पादन की तकनीक में संशोधन होते गए। इलेक्ट्रीकल टेक्नोलाजी आयी, कार्बन का इस्तेमाल होने लगा, अब मुख्यता विनाइल पर रिकार्ड के उत्पादन हो रहे हैं। पहले थोड़े-थोड़े समय के रिकार्ड बनते थे, टेक्नॉलाजी बढ़ी तो लांग प्लेइंग रिकार्ड्स का प्रचलन शुरू हो गया। भारत में पहले एल. पी. रिकार्ड प्लेट की शुरूआत भी 1959 में कोलकाता में हुई, स्वाभाविक है जिसका उद्घाटन सितारवादक पं. रविशंकर ने किया। और जून 1959 में उन्हीं की संगीत के साथ वहीं से पहला एल. पी. रिकार्ड निकला भी।
              जो भी हो, लेकिन इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि एल. पी. रिकार्ड्स को लोकप्रियता दिलाने में सिनेमा संगीत की विशिष्ट भूमिका रही। कह सकते हैं सिनेमा संगीत की ही नहीं, पूरे सिनेमा की। ‘शोले’ के संवादों के एल. पी. ने अपने समय में लोकप्रियता के नए आयाम कायम किए थे। कहा जाता है जब ‘शोले’ के रिकार्ड्स ग्रामोफोन पर बजने शुरू होते थे तो सड़कों पर भीड़ उसे सुनने ठहर जाती थी। ‘शोले’ की लोकप्रियता से प्रभावित कई और फिल्मों के रिकार्ड निकाले गए लेकिन ‘शोले’ वाली बात दुहरायी नहीं जा सकी।
              रिकार्ड्स के प्रचलन की वापसी को ध्यान में रखकर फिल्मकारों ने भी नए सिरे से इस माध्यम को तरजीह देने की शुरूआत की है। अक्टूबर 2010 में ‘सा रे गा मा’ ने जान अब्राहम की फिल्म ‘झूठा ही सही’ के एल. पी. के साथ 13 साल बाद रिकार्ड बाजार में दस्तक दी। इसके पूर्व 1997 में यश चोपड़ा की फिल्म ‘दिल तो पागल है’ के रिकार्ड ही बाजार में आए थे। इस बाजार की लोकप्रियता को ध्यान में रखकर टी सिरीज ने भी अपनी फिल्म ‘तीस मार खान’ और ‘पटियाला हाउस’ के एल. पी. रिकार्ड्स निकाले। सिनेमा संगीत के प्रेमियों के लिए ये रिकार्ड अनिवार्यता भले ही न हो, स्टेट्स सिंबल तो जरूर बन रहे हैं। इसका एक कारण इसकी दुर्लभता और इसकी मंहगी कीमत भी है।
              एक ओर एक से.मी. के आकार के पेनड्राइव में पूरी फिल्म दूसरी ओर बड़ा सा एल. पी. रिकार्ड, जिसकी कीमत में दर्जनभर से ज्यादा डीवीडी खरीदे जा सकते हैं। इसके प्रति यदि आज के युवा भी आकर्षित हो रहे हैं तो इसकी बजह सिर्फ संगीत की क्वालिटी और परम्परा से लगाव ही नहीं, कहीं न कहीं अपनी कमाई के अतिरेक का प्रदर्शन भी है। वास्तव में व्यापार और कारपोरेट जगत ने आज युवाओं की एक बिरादरी को इतनी समृद्धि दे दी है, जो कि उन्हें खर्च के बहाने ढ़ूंढने पड़ रहे हैं। निश्चित रूप से जब ‘पटियाला हाउस’ और ‘तीस मार खान’ के तात्कालिक लोकप्रियता के लिए कोई अनिवार्य जरूरत से सौ गुनी ज्यादा कीमत चुकाने को तैयार हो तो स्पष्ट लगता है रिकार्ड की वापसी का वाजिब कारण नहीं।
              लेकिन एक सच यह भी है रिकार्ड संगीत के मानवीयता का प्रतीक है। उस्ताद बड़े गुलाम अली खां या उस्ताद अली अकबर खां या फिर सहगल का दिल टूटना एक से.मी. के पेनड्राइव में उतना ही हास्यास्पद हो जाता है जितना तीस मार खान को बड़े से एल. पी. पर प्रतिष्ठित देखना। उम्मीद है आने वाले दिनों में एल. पी. की पहचान संगीत के अनिवार्यता के लिए होगी, स्टेट्स सिंबल के लिए नहीं। वास्तव में एल. पी की यह पहचान उसे बेसुरा कर देगी।



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