Thursday, June 23, 2011

बी.बी.सी. के लिए क्यों मचा है स्यापा

सवाल यह नहीं कि बी.बी.सी. याने ब्रिटिश ब्रॉडकास्टिंग कॉरपोरेशन की हिन्दी सेवा कब और क्यों बन्द हो रही है, बन्द हो भी रही है या नहीं? सवाल यह है कि उसकी बन्दी की खबर पर स्यापा क्यों मचा है। एक न्यूज चैनल बी.बी.सी. की बंदी पर सीरिज चला रहा है तो एक पर डिस्कशन चल रहे हैं। अधिकांश हिन्दी पत्रिकाएं भी चैनलों की देखा देखी इस स्यापे में शामिल हो गयीं हैं। आजादी के समय तो मैं नहीं था, लेकिन अब अहसास हो रहा है, शायद उस समय भी अंग्रेजों की जाने की खबर से बुद्धिजीवी हल्के में कुछ ऐसी बेचैनी छायी होगी। खासकर उस हल्के में जिनकी रोजी-रोटी ब्रिटिश साम्राज्य के सहारे चल रही होगी, उन्होने भी उस समय यह भ्रम पैफलाने की जरूर कोशिश की होगी कि अंग्रेज चले गये तो देश में त्राहि-त्राहि हो जायेगी, जैसा अभी बताया जा रहा है कि यदि बी.बी.सी. की हिन्दी सेवा बन्द हो गर्इ तो देश में सही-इमानदार-सच्ची-नैतिक व सटीक वगैरह वगैरह खबरें आनी बन्द हो जायेगी। बी.बी.सी. बन्द होने से जिनकी रोजी-रोटी बन्द हो रही है, उनका स्यापा माना थोड़ी देर के लिए सही माना भी जा सकता है, लेकिन उस स्यापा में आम लोगों का शामिल होना कहीं न कहीं हमारे अवचेतन पर अभी तक छायी ब्रिटिश साम्राज्य का वह प्रभाव है जो क्वींस बेटन के दर्शन तक से अपने आप को धन्य मान लेता है। यही प्रभाव है जो ब्रिटिश साम्राज्यवाद के प्रतीक कॉमनवेल्थ के हिस्से के रूप में अपने आप को गौरवान्वित महसूस करता है।

हालाकि इस बात पर कोर्इ संदेह नहीं कि बी.बी.सी. ब्रिटिश सरकार से अलग एक स्वतंत्र समाचार संस्था है। यह भी कहा जा सकता है कि इसके समाचारों पर ब्रिटिश सरकार का सीधा नियंत्रण नहीं है। लेकिन यह स्वीकार्य करना शायद मुश्किल होगा कि बी.बी.सी. ने कभी ब्रिटिश हितों की अनदेखी की हो। यदि ऐसी अनदेखी के एकाध दृष्टांत हों भी तो ऐसे दृष्टांत तो शायद असंभव है कि वह भारतीय हित में खड़ी हुर्इ हो। बी.बी.सी. की हिन्दी सेवा का पहला प्रसारण अंग्रेजी राज में ही शुरू हुआ था, 11 मर्इ 1940 को। इसके पहले प्रमुख थे जुल्फीकार बोखारी, जो बाद में रेडियो पाकिस्तान के महानिदेशक बने। बी.बी.सी. के लिए स्पाया करते और भारत में लोकतंत्र की एकमात्र पक्षधर पत्रकारिता के रूप में स्थापित करते हुए बरबस यह जिज्ञासा होती है 1940 से 1947 के बीच भारतीय स्वाधीनता संग्राम में बी.बी.सी. की भूमिका आखिर क्या थी?

भारत विभाजन के बाद 1949 में हिन्दी सेवा की विधिवत शुरूआत हुर्इ। राज्यों तक इसका विस्तार हुआ और कर्इ प्रतिष्ठित पत्रकारों ने बी.बी.सी. के साथ अपनी प्रकारिता को एक पहचान दी। उस दौर में जब खबरों का एक मात्र स्रोत सरकार के नियंत्रण वाली ‘आकाशवाणी’ थी, बी.बी.सी. ने नियंत्रण रहित समाचारों के एकमात्र स्रोत के रूप में भारतीय खासकर हिन्दी भाषी श्रोताओं के बीच अहम जगह बनायी। हिन्दी श्रोताओं के बीच जगह बनाने का एक और महत्वपूर्ण कारण राजनीति के प्रति उनकी अदम्य जिज्ञासा भी थी। वे सबकुछ जानना चाहते थे, चाहे उनके लिए प्रासंगिक हो या नहीं। जाहिर है इमरजेन्सी के दौर में जब भारत में खबरों की निष्पक्षता ही संदिग्ध रह गयी थी, बी.बी.सी. ने अपनी सक्रिय भूमिका निभायी। हिन्दी श्रोताओं ही नहीं, राजनीतिज्ञों के लिए भी बी.बी.सी. संदर्भ का काम करने लगे। निश्चित रूप से कारण चाहे जो भी रहे हों, बी.बी.सी. की भूमिका की यहां सराहना की जानी चाहिए।

लेकिन क्या खबरों पर सरकारी नियंत्रण इतना ही बूरा था, और बी.बी.सी. की उदारता इतनी ही अच्छी? बी.बी.सी. का महत्व तब अचानक बढ़ जाता था जब देश के किसी कोने में अस्थिरता के बादल मंडराते दिखते, चाहे वह किसी कोने में दंगे की आग हो या आतंकवादी हमले की। सरकार नियंत्रित समाचार माध्यम जहां दंगों की स्थिति नियंत्रित बताकर आम लोगों की प्रतिक्रिया को काबू में रखने की कोशिश करता वहीं बी.बी.सी. सत्य के नाम पर हिंसा की अतिरंजित गाथा ब्यान कर आग में घी डालने की कोशिश करता। याद करें किसी भी हिंसक आन्दोलन के दौरान सरकारी समाचार माध्यमों में कभी भी मृतक या घायलों की संख्या के साथ जाति और धर्म का उल्लेख नहीं किया जाता है। लेकिन बी.बी.सी. हमेशा मृतकों की संख्या जाति धर्म के साथ बता कर स्थिति को भयावह बनाने की कोशिश करती रही। नहीं कहा जा सकता, भारत को कमजोर करने की यह ब्रिटिश रणनीति का हिस्सा थी, या बी.बी.सी. के स्वतंत्र प्राधिकार की नीति, लेकिन इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि बी.बी.सी. की खबरे भारत पर भारी भी पड़ती रहीं।

अब जबकि पूरी दुनियां हमारी नजरों के सामने है। हमारे घरों के छतों पर रखे गमले की तस्वीर अमेरिका के किसी कोने में देखी जा रही है। ऐसे में स्वतंत्र पत्रकारिता की चाह में बी.बी.सी. को लेकर स्यापा हास्यास्पद ही लगता है। सही है कि गांवों में अभी भी रेडियो ही सुने जा रहे हैं। लेकिन यह भी सही है कि गांवों की जनता भी अब बी.बी.सी. के खबरों से नियंत्रित नहीं होते, बी.बी.सी. की खबरें वे सुन भले ही लें, बी.बी.सी. पर आश्रित नहीं हैं। यह अलग सर्वेक्षण का विषय है कि सस्ते चाइनिज डिश से किन गांवों में कितने चैनल देखे जा रहे हैं, यह तो स्पष्ट है कि अखबारों की पहुंच अब सवेरे सवेरे गांवों तक होने लगी है।

यूं भी अच्छा लगता यदि बी.बी.सी. की हिन्दी सेवा को कायम रखने के बजाय हमने अपने समाचार माध्यमों को मजबूत करने के संघर्ष की शुरूआत की होती। कुछ दिन पहले जब पटना में ब्रिटिश लाइब्रेरी बन्द करने की घोषणा हुर्इ तो कुछ इसी तरह की सुगबुगाहट देखी गयी। अंग्रजों के गये 64 साल हो गये हैं, आखिर अभी भी क्यों हम उन्हीं पर निर्भर रहना चाहते हैं? आखिर ब्रिटिश अवशेषों के प्रति हमारी इस लगाव की क्या वजह है? हमें क्यों नहीं लगता कि यह खुशिया मनाने का वक्त है कि एक एक कर ब्रिटिश साम्राज्य की पहचान हमारे जीवन से गुम हो रही है।

No comments:

Post a Comment