Saturday, June 25, 2011

पेटा की नग्नता

Teenager Kills Dog Hoping For Another Nude-Girl PETA Ad

PETA: Fuelling Teenage Fantasies. Since 1980


PETA: Fuelling Teenage Fantasies. Since 1980



कौन है कविता राधे श्याम? कुछ दिन पहले इसका जवाब मुस्किल था। लेकिन आज उसकी लोकप्रियता इस हद तक पहुंच चुकी है कि पत्रकारों को उसके खिलाफ लिखने पर उसके प्रशंसकों की ओर से जान मारने तक की घमकियां मिल रही हैं। कहां से मिले इतने समर्पित प्रशंसक? विक्रम भट्ट की आने वाली फिल्म ‘पांच घण्टे में पांच करोड़’ के बारे में शायद ही आज भी किसी को पता है, लेकिन इतना अब अधिकांश सिने प्रेमियों को पता चल गया है कि उसकी नायिका कविता राधे श्याम होंगी। कविता राधे श्याम की इस त्वरित लोकप्रियता की सिर्फ एक वजह दिखायी देती है, उसका न्यूड फोटो सेशन। जो आज इण्टरनेट पर सबसे ज्यादा खोजी जाने वाली चीजों में शुमार की जाने लगी है। इण्टरनेट पर दिखते लम्बे फोटो सेशन में हर कोण से न्यूड दिखती कविता राधेश्याम ने अपने नग्नता को सिर्फ नग्नता ही नहीं रहने दी बल्कि उसे एक उद्देश्य से जोड़कर एक विशिष्टता प्रदान कर दी। इसके लिए कविता को सिर्फ अपने शरीर पर यत्र तत्र ‘सेव टाइगर’ लिखवाना पड़ा। और कविता के नग्न होने से टाइगर के सेव होने का क्या सम्बन्ध यह तो राम ही जाने। यूं भी कविता कैसे उम्मीद कर सकती है कि लोग उसके नग्न शरीर पर लिखी किसी इबारत पर भी गौर करेंगे। लेकिन पूनम के नग्न होने की घोषणा पर ही जब इंडिया टीम विश्वकप जीत जा सकती है तो कविता के घोषणा के पर अमल कर लेने से बाघ क्यों नहीं बच जा सकते। यह अपना अपना विश्वास है, सुखद है कि इस विश्वास से सुधी दर्शकों का भी सौंदर्यबोध थोड़ा संवर जाता है।

वास्तव में भारत में नग्नता तुरंत सुर्खियां उपलब्ध कराने का एक जाना पहचाना तरीका रहा है। वर्षों पहले प्रोतिमा बेदी ने समुद्र तट पर नग्न दौड़ कर शायद इसकी शुरूआत की थी। हालांकि बाद में दर्शकों को उनकी वह छवि याद भी नहीं रही और वे ओडिसी नृत्यांगना के रूप में अमर हो गर्इ। लेकिन चटपट सफलता की चाह में लगी लड़कियों को आज भी सुर्खियों में आने का वही तरीका सबसे मुफीद लगता है। होसियारी सिर्फ यह बरती जाने लगी है कि अपने नंगे होने को एक नाम दे दिया जाता है, उसे एक मुद्दे का झीना आवरण दे देने की कोशिश की जाती है। कविता को नग्न तो होना ही था लेकिन ‘सेव टाइगर’ का मुद्दा उसकी नग्नता को एक मतलब दे देता है। वास्तव में नग्न होती अभिनेत्रियों या मॉडलों को देखकर यही लगता है, नग्न होने के लिए वे तैयार पहले हो जाती हैं, मुद्दे बाद में तलाश लेती हैं। इसका लाभ भी दोहरा मिलता है, एक तो नग्न होने के व्यवसायिक लाभ सुरक्षित रहते ही हैं, दूसरा सामाजिक रूप से जागरूक होने कि पहचान वजीपेफ के रूप में मिल जाती है। सामाजिक मुद्दे की नेक नामी नग्नता की बदनामी को गौण कर देती है।

यही कारण है कि बीते वर्षों में गुमनाम अभिनेत्रियों की एक बड़ी तादाद ने अपने न्यूड फोटो सेशन के बल पर सुर्खियों में आने की हिम्मत जुटायी। उन्हें शायद अहसास था कि सामाजिक मुद्दे की छौंक उनके नग्नता को एक नया आकर्षण देगी। कविता की तो खैर बाघ बचाने की यह निजी पहल थी। जानवरों को बचाने के लिए सक्रिय संस्था ‘पेटा’ के साथ भी मुश्किल है कि इसकी जितनी पहचान वन्य प्राणियों के संरक्षण को लेकर है, उससे कहीं ज्यादा इसके नग्न मॉडलों केा लेकर है। निसंकोच कहा जा सकता है, ‘पेटा’ के साइट पर क्लिक करने वालों में एक बड़ी संख्या ऐसे रसज्ञों की ही होती है जिनकी दिलचस्पी उसके मुद्दे में कम, उसके मॉडलों में अधिक होती है। शर्लिन चोपड़ा, सेलिना जेटली, लारा दत्ता, इशा कोपिकर, जिया खान, अनुष्का शंकर और फिर मल्लिका शेरावत-राखी सावंत भला ऐसे मुद्दों में पीछे रह जायेगीं, यह तो सोंचा भी नहीं जा सकता। वन्य प्राणि के रक्षा के नाम पर इन सारी और इनके अलावे भी कर्इ अभिनेत्रियों ने भांति भांति से अमूमन नग्न होकर अपनी प्रस्तुति दी है। किसी ने अपने नग्न शरीर को बिल्ली की शक्ल में रंग लिया तो कोइ कपड़े उतार कर जानवरों के पिंजड़े में जा बैठी, अपने अपने सौंदर्यबोध और सीमा के अनुसार सबों ने अपने कपड़े उतार कर जानवरों को बचाने की कोशिश की। किसी ने कपड़े उतार कर फर के कपड़ों का प्रतिरोध किया तो एक मॉडल क्रिकेट बॉल में चमड़े के इस्तेमाल के खिलाफ कपड़े उतार कर खड़ी हो गइ। गजब है यह परिकल्पना? आंखों के बदले इन विज्ञापनों को देखते हुए यदि आप विचारों का इस्तेमाल करने लगें तो हतप्रभ रह जा सकते हैं। क्या वाकर्इ ‘पेटा’ को लगता है ये विज्ञापन उसके अभियान में प्रभावी होते हैं?

‘पेटा’ के ये विज्ञापन कितने सार्थक होंगे यह इसी से समझी जा सकती है कि इनमें से सभी डिजाइनर फैशन मैगजिनों में ही छपते हैं। आमजन के लिए सुलभ पत्रिकाओं में ये विज्ञापन सिर्फ खबरों में दिखायी देते हैं, स्टाम्प साइज के तस्वीरो के साथ। शायद आमजन की पत्रिकाओं को ऐसी तस्वीरों को छापने के लायक समझा ही नहीं जाता, और शायद इन पत्रिकाओं का सामान्य भारतीय सौंदर्यबोध इसकी इजाजत भी नहीं देता। जाहिर है वन्य प्राणियों की रक्षा के नाम पर वषोर्ं से नग्नता का यह खेल चलता आ रहा है, लेकिन समस्या दिन ब दिन बदतर होते जा रहे हैं। बावजूद इसके यह किसी आश्चर्य से कम नहीं कि ‘पेटा जैसी संस्था को भी अपने विज्ञापन अभियान के इस भद्दे तरीके की निरर्थकता समझ में नहीं आती। या फिर समझने की कोशिश नहीं की जाती, क्यों कि ‘पेटा’ को भी शायद बिना कुछ किये चर्चे में रहने का दूसरा तरीका समझ में नहीं आता। यदि मुद्दे उसके केन्द्र में होते तो निश्चित रूप से नग्नता में बाघ को बचाने में तरीके ढ़ूंढ़ने के बजाय वह भी एयर सेल जैसे विज्ञापन पर गौर कर रही होती जो अपने मुद्दे के प्रति ज्यादा गम्भीर रही है। आज जब कि विज्ञापन की दुनिया इतनी समृद्ध हो चुकी है कहने और समझाने के हजारों तरीके ढ़ूंढ़े जा रहे हैं ऐसे में ‘पेटा’ का अपने उद्देश्य के लिए सिर्फ नग्नता को प्रश्रय देना वाकर्इ समझ से परे है।

गौर तलब है कि ‘पेटा’ को यदि अपने मुद्दों के प्रति सेलिब्रिटी का सहयोग अनिवार्य ही लगता है तो फिर क्यों नहीं उसने हेमा मालिनी, रेखा या फिर माधुरी दीक्षित, करिश्मा कपूर या फिर कटरीना कैफ, करीना कपूर जैसी अभिनेत्रियों से सहयोग लेने की पहल की, जिनकी एक पब्लिक अपील भी है। क्यों उसे अपने मुद्दे के लिए शर्लिन चोपड़ा और राखी सावंत जैसी हासिये पर पड़ी अभिनेत्रियां ही नजर आती है? वास्तव में ‘पेटा’ का विज्ञापन अभियान म्यूचूअल अनडर स्टैंडिंग का प्रतीक दिखता है, ‘पेटा’ को बैठे बिठाये न्यूड मॉडल मिल जाते हैं और अभिनेत्रियों को मुद्दे का आवरण और दोनों को सुर्खियों के लक्ष की प्राप्ति हो जाती है। अब यह जिज्ञासा अपनी जगह है कि नग्न होने के लिए तैयार अभिनेत्रियां ‘पेटा’ की तलाश करती हैं या फिर ‘पेटा’ तलाश करती है ऐसी अभिनेत्रियों की जो पूरे कपड़े उतार सकती हों। चाहे जो भी हो, इतना सच है कि इस सारे संजाल के बीच यदि कुछ गुम हो जाता है तो वह है मूक वन्य प्राणियों के संरक्षण का पवित्र उद्देश्य।

Thursday, June 23, 2011

बी.बी.सी. के लिए क्यों मचा है स्यापा

सवाल यह नहीं कि बी.बी.सी. याने ब्रिटिश ब्रॉडकास्टिंग कॉरपोरेशन की हिन्दी सेवा कब और क्यों बन्द हो रही है, बन्द हो भी रही है या नहीं? सवाल यह है कि उसकी बन्दी की खबर पर स्यापा क्यों मचा है। एक न्यूज चैनल बी.बी.सी. की बंदी पर सीरिज चला रहा है तो एक पर डिस्कशन चल रहे हैं। अधिकांश हिन्दी पत्रिकाएं भी चैनलों की देखा देखी इस स्यापे में शामिल हो गयीं हैं। आजादी के समय तो मैं नहीं था, लेकिन अब अहसास हो रहा है, शायद उस समय भी अंग्रेजों की जाने की खबर से बुद्धिजीवी हल्के में कुछ ऐसी बेचैनी छायी होगी। खासकर उस हल्के में जिनकी रोजी-रोटी ब्रिटिश साम्राज्य के सहारे चल रही होगी, उन्होने भी उस समय यह भ्रम पैफलाने की जरूर कोशिश की होगी कि अंग्रेज चले गये तो देश में त्राहि-त्राहि हो जायेगी, जैसा अभी बताया जा रहा है कि यदि बी.बी.सी. की हिन्दी सेवा बन्द हो गर्इ तो देश में सही-इमानदार-सच्ची-नैतिक व सटीक वगैरह वगैरह खबरें आनी बन्द हो जायेगी। बी.बी.सी. बन्द होने से जिनकी रोजी-रोटी बन्द हो रही है, उनका स्यापा माना थोड़ी देर के लिए सही माना भी जा सकता है, लेकिन उस स्यापा में आम लोगों का शामिल होना कहीं न कहीं हमारे अवचेतन पर अभी तक छायी ब्रिटिश साम्राज्य का वह प्रभाव है जो क्वींस बेटन के दर्शन तक से अपने आप को धन्य मान लेता है। यही प्रभाव है जो ब्रिटिश साम्राज्यवाद के प्रतीक कॉमनवेल्थ के हिस्से के रूप में अपने आप को गौरवान्वित महसूस करता है।

हालाकि इस बात पर कोर्इ संदेह नहीं कि बी.बी.सी. ब्रिटिश सरकार से अलग एक स्वतंत्र समाचार संस्था है। यह भी कहा जा सकता है कि इसके समाचारों पर ब्रिटिश सरकार का सीधा नियंत्रण नहीं है। लेकिन यह स्वीकार्य करना शायद मुश्किल होगा कि बी.बी.सी. ने कभी ब्रिटिश हितों की अनदेखी की हो। यदि ऐसी अनदेखी के एकाध दृष्टांत हों भी तो ऐसे दृष्टांत तो शायद असंभव है कि वह भारतीय हित में खड़ी हुर्इ हो। बी.बी.सी. की हिन्दी सेवा का पहला प्रसारण अंग्रेजी राज में ही शुरू हुआ था, 11 मर्इ 1940 को। इसके पहले प्रमुख थे जुल्फीकार बोखारी, जो बाद में रेडियो पाकिस्तान के महानिदेशक बने। बी.बी.सी. के लिए स्पाया करते और भारत में लोकतंत्र की एकमात्र पक्षधर पत्रकारिता के रूप में स्थापित करते हुए बरबस यह जिज्ञासा होती है 1940 से 1947 के बीच भारतीय स्वाधीनता संग्राम में बी.बी.सी. की भूमिका आखिर क्या थी?

भारत विभाजन के बाद 1949 में हिन्दी सेवा की विधिवत शुरूआत हुर्इ। राज्यों तक इसका विस्तार हुआ और कर्इ प्रतिष्ठित पत्रकारों ने बी.बी.सी. के साथ अपनी प्रकारिता को एक पहचान दी। उस दौर में जब खबरों का एक मात्र स्रोत सरकार के नियंत्रण वाली ‘आकाशवाणी’ थी, बी.बी.सी. ने नियंत्रण रहित समाचारों के एकमात्र स्रोत के रूप में भारतीय खासकर हिन्दी भाषी श्रोताओं के बीच अहम जगह बनायी। हिन्दी श्रोताओं के बीच जगह बनाने का एक और महत्वपूर्ण कारण राजनीति के प्रति उनकी अदम्य जिज्ञासा भी थी। वे सबकुछ जानना चाहते थे, चाहे उनके लिए प्रासंगिक हो या नहीं। जाहिर है इमरजेन्सी के दौर में जब भारत में खबरों की निष्पक्षता ही संदिग्ध रह गयी थी, बी.बी.सी. ने अपनी सक्रिय भूमिका निभायी। हिन्दी श्रोताओं ही नहीं, राजनीतिज्ञों के लिए भी बी.बी.सी. संदर्भ का काम करने लगे। निश्चित रूप से कारण चाहे जो भी रहे हों, बी.बी.सी. की भूमिका की यहां सराहना की जानी चाहिए।

लेकिन क्या खबरों पर सरकारी नियंत्रण इतना ही बूरा था, और बी.बी.सी. की उदारता इतनी ही अच्छी? बी.बी.सी. का महत्व तब अचानक बढ़ जाता था जब देश के किसी कोने में अस्थिरता के बादल मंडराते दिखते, चाहे वह किसी कोने में दंगे की आग हो या आतंकवादी हमले की। सरकार नियंत्रित समाचार माध्यम जहां दंगों की स्थिति नियंत्रित बताकर आम लोगों की प्रतिक्रिया को काबू में रखने की कोशिश करता वहीं बी.बी.सी. सत्य के नाम पर हिंसा की अतिरंजित गाथा ब्यान कर आग में घी डालने की कोशिश करता। याद करें किसी भी हिंसक आन्दोलन के दौरान सरकारी समाचार माध्यमों में कभी भी मृतक या घायलों की संख्या के साथ जाति और धर्म का उल्लेख नहीं किया जाता है। लेकिन बी.बी.सी. हमेशा मृतकों की संख्या जाति धर्म के साथ बता कर स्थिति को भयावह बनाने की कोशिश करती रही। नहीं कहा जा सकता, भारत को कमजोर करने की यह ब्रिटिश रणनीति का हिस्सा थी, या बी.बी.सी. के स्वतंत्र प्राधिकार की नीति, लेकिन इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि बी.बी.सी. की खबरे भारत पर भारी भी पड़ती रहीं।

अब जबकि पूरी दुनियां हमारी नजरों के सामने है। हमारे घरों के छतों पर रखे गमले की तस्वीर अमेरिका के किसी कोने में देखी जा रही है। ऐसे में स्वतंत्र पत्रकारिता की चाह में बी.बी.सी. को लेकर स्यापा हास्यास्पद ही लगता है। सही है कि गांवों में अभी भी रेडियो ही सुने जा रहे हैं। लेकिन यह भी सही है कि गांवों की जनता भी अब बी.बी.सी. के खबरों से नियंत्रित नहीं होते, बी.बी.सी. की खबरें वे सुन भले ही लें, बी.बी.सी. पर आश्रित नहीं हैं। यह अलग सर्वेक्षण का विषय है कि सस्ते चाइनिज डिश से किन गांवों में कितने चैनल देखे जा रहे हैं, यह तो स्पष्ट है कि अखबारों की पहुंच अब सवेरे सवेरे गांवों तक होने लगी है।

यूं भी अच्छा लगता यदि बी.बी.सी. की हिन्दी सेवा को कायम रखने के बजाय हमने अपने समाचार माध्यमों को मजबूत करने के संघर्ष की शुरूआत की होती। कुछ दिन पहले जब पटना में ब्रिटिश लाइब्रेरी बन्द करने की घोषणा हुर्इ तो कुछ इसी तरह की सुगबुगाहट देखी गयी। अंग्रजों के गये 64 साल हो गये हैं, आखिर अभी भी क्यों हम उन्हीं पर निर्भर रहना चाहते हैं? आखिर ब्रिटिश अवशेषों के प्रति हमारी इस लगाव की क्या वजह है? हमें क्यों नहीं लगता कि यह खुशिया मनाने का वक्त है कि एक एक कर ब्रिटिश साम्राज्य की पहचान हमारे जीवन से गुम हो रही है।

Tuesday, June 21, 2011

दिल्ली ही चुप नहीं रहती



‘नो वन किल्ड जेसिका’ एक दृष्टांत भर है। फिल्म क्या है, कैसी है जरूरत इसपर जाने की नहीं, जरूरत सिर्फ इस बात को पहचानने की है कि आखिर क्यों इस तरह की घटनाओं पर एक नृशंस चुप्पी व्याप्त कर जाती है। यहां तक कि अधिकांश मामलों में पिड़ित के परिवार के ओर से भी मुखर प्रतिकार की जगह, चुप्पी को ही प्राथमिकता दी जाती है। बहाने भले ही डर के होते हो, वास्तव में डर तो तब होता है जब सामने कोइ खतरा हो। डर जब किसी खतरे के बगैर भी होने लगे तो मान लेना चाहिए यह डर हमारे स्वभाव में तबदील हो चुका है। दिल्ली चूंकि राष्ट्रीय राजधानी है, जाहिर है यहां की घटनाऐ तुरन्त सारे देश तक पहुंच ही नहीं जाती, उसे चिन्तित भी करती है। इसी लिए हाल के दिनों में जब दिल्ली में सरेआम लड़कियों की हत्या, बलात्कार, छेड़खानियों की घटनाओं में दैनंदिनी इजाफा हुआ तो सवाल उठा दिल्ली चुप रहती है। यहां तक कि मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने भी दिल्ली की इस चुप्पी पर अपना असंतोष व्यक्त किया। फलिस अधिकारियों को भी शह मिली और उन्होंने भी इस चुप्पी के लिए दिल्ली को लताड़ लगा दी। हालांकि दिल्ली को शर्मिंदा नहीं होना था, दिल्ली शर्मिंदा नहीं हुइ। दिल्ली को पता है यह चुप्पी उसने अकेले नहीं साध रखी। वह इस देश के स्वभाव का निर्वाह कर रही है। बात छेड़खानियों और बलात्कार का ही क्यों, गौर करें आखिर किस बात पर बोल रहे हैं हम?

भ्रष्टाचार पर रोज ब रोज नइ परतें खुल रही हैं। घोटाले की राशि अब लाखों से बढ़कर लाख करोड़ तक पहुंच चुकी है, शायद इतना कि कई देशों का भरण पोषण हो जाय। लेकिन हमारे लिए यह बात मात्र एक खबर होती है। हम निरपेक्ष भाव से जिसे सुन लेते हैं, पढ़ जाते हैं। शायद अधिकांश लोग चिंतित भी नहीं होते। गुस्सा होने की तो बात नहीं ही है। आश्चर्य नहीं कि अली से लेकर कलमाड़ी तक किसी के चेहरे पर कोइ शिकन नहीं दिखायी देती। पुलिस की पकड़ में जाते हुए उनकी तस्वीरों को देखकर यह अहसास करना मुश्किल होता है कि वे अपराधी के रूप में जा रहे हैं या सुरक्षा घेरे में किसी वी.वी.आइ.पी. के रूप में। चाहे चेहरे की चमक हो या कुरते की सफेदी, कहीं से भी अहसास नहीं होता कि इस देशद्रोह के प्रति उनके मन में कोइ पछतावा है। शायद इसी लिए देश उन्हें अपनी गलती का अहसास करवा ही नहीं पाता। गलती का अहसास किसी कानूनी कारवायी से नहीं आ सकता, उसका सामना हमेशा आसान होता है। उसके लिए तमाम दांव-पेंच है, वकील हैं, गवाह है, सबूत है। मुश्किल होता है अपने लोगों का सामना करना, जहां कोइ तर्क काम नहीं करता। बावजूद इसके सच यही है कि हमारी राष्ट्रीय चुप्पी किसी के सामने कभी कोइ मुश्किल खड़ी नहीं करती।

पटना में दिनदहाड़े स्कूली बस में लड़कियों के साथ छेड़खानी के लोग गवाह रहे हैं। मेरठ, आगरा, जौनफर जैसे शहरों में आए दिन लड़कियों के चेहरे पर तेजाब फेंकने की खबरे आती हैं। क्लास-रूम में घुसकर छेड़खानियों की खबर अब छोटे शहरों से ही ज्यादा आ रही है, याद करने की कोशिश करें, छात्रें से भरे कॉलेज में घुसकर प्राचार्य को तलवार से काट दिया जाता है। छात्रों का एक समूह प्राध्यापक की पीट-पीट कर हत्या कर देता है। कोर्इ नहीं बोलता। आखिर दिल्ली से ही क्यों उम्मीद रखी जाय बोलने की?

वास्तव में यह चुप्पी किसी शहर, किसी व्यक्ति की नहीं, अमूमन पूरे हिन्दुस्तानी मèयवर्ग की है। जो जरूरतों की अंधी दौड़ में अपने आपको बनाए रखने के लिए घोड़े वाला चश्मा पहन लेने की कोशिश करता है ताकि उसकी निगाहें ‘गैर जरूरी’ चीजों की ओर न जाये। आश्चर्य नहीं कि अपने बच्चों को प्राइमरी स्कूल से ही हम घुट्टी पिलाने की कोशिश करते हैं कि इधर-उधर की बातों पर कोर्इ ध्यान नहीं देना, सिर्फ पढ़ाइ करना। इस इधर-उधर का अर्थ उसके मन में इतना गहरा बैठ जाता है कि कक्षायें खाली रहने पर भी वह शिक्षक के सामने बोलने की हिम्मत नहीं जुटा पाता। न तो अपने मित्र के लिए किसी को पीट सकता है, न अपने मित्र से किसी पीटते बचा सकता है। यह ‘अच्छा बच्चा’ धीरे-धीरे ऐसा अच्छा नागरिक बन जाता है जिससे किसी को कोर्इ खतरा नहीं होता। वास्तव में यह ‘अच्छा नागरिक’ देश की आबादी में एक संख्या से ज्यादा की अहमियत नहीं रखता। जो अपनी जवाबदेही सिर्फ अपने प्रति सुरक्षित रखता है। जो अपनी भी बेटी के साथ छेड़खानी होती देख कहता है, छोड़ो जाने दो गुन्डों के मुह नहीं लगना। यह ‘अच्छा नागरिक’ दिल्ली में ज्यादा इसलिए दिखायी देता है कि दिल्ली में अपने आप को सुरक्षित समझने वाले लोग भी ज्यादा हैं। वह निश्चिंत रहता है कि घटना सामने वाले के साथ घट रही है वह पूरी तरह सुरक्षित है। जिस दिन देश में लोग असुरक्षित लोगों के साथ अपने को खड़ा कर देखने लगेंगे, उस दिन से चुप्पी भी टूट जायेगी। वे महसूस कर सकेंगे कि गुन्डों को मुह नहीं लगाकर वे अपने आप को सुरक्षित नहीं कर रहे हैं, बल्कि आने वाले भविष्य को भी असुरक्षित कर रहे हैं।

सवाल चुप्पी पर दूसरों से पूछने का नहीं, अपने आप से पूछने का है, पिछली बार हमने कब आवाज उठायी थी? मुख्यमंत्री जी कह रहीं हैं दिल्ली चुप रहती है। मुख्यमंत्री जी ही कहां बोल रही हैं, उनकी नाक के नीचे दुर्गन्ध मची है, कहां वे उसे साफ कर पा रही हैं? अपने अधिकारियों से भी तो वे पूछकर देखतीं कि उन्होंने अपने वरिष्ठ अधिकारियों या विधायकों यहां तक कि टूटपून्जीय नेताओं की ज्यादाती पर भी कब आवाज उठायी थी? उस देश में कैसे कोर्इ मुखर हो सकता है जहां प्रधानमंत्री के पद की सुरक्षा ही उसकी चुप्पी में निहित हो।

सोचना हमे पड़ेगा आखिर चुप रह कर हम क्या सुरक्षित रखना चाहते हैं? अपनी जान, अपनी समृद्धि, अपनी नौकरी, अपना घर,....? वास्तव में बचपन से ही हमारी जिन्दगी का सार सफलता और समृद्धि में समेट दिया जाता है। भारत की भौगोलिक स्थिति भी ऐसी है कि आम तौर पर यहां लोगों को चुनौतियों का सामना कम करना पड़ता है। चुनौतियां सामने आती है तो लोगों को एक दूसरे के साथ की जरूरत होती है, जैसी कोशी में दिखा था। जैसा आज जापान में दिख रहा है। जहां किसी की भी व्यक्तिगत समृद्धि चाहे जिस शिखर पर हो आज शून्य हो गयी है। अफसोस दूसरे के दुर्दिन से हम सबक नहीं लेते, नहीं तो हम अपनी इस निरपेक्षता पर फनर्विचार कर पाते कि आखिर किसी चीज को बचाने के लिए हमने चुप्पी साध रखी है। जीवन का अन्तिम सत्य एक दूसरे के साथ में है, एक दूसरे को बचाने में है। प्रकृति बार-बार हमे यह सिखाने की कोशिश करती है। अफसोस हम सीख नहीं पाते। भूल जाते हैं कि प्रकृति से सीख नहीं लेने वाले प्राणी को विलुप्त होते देर नहीं लगती। इतना तय मानलें धरती पर बचने वाले अन्तिम व्यक्ति हम नहीं होंगे। तो शायद जिन्दगी कुछ आसान हो जायगी। और हमारे लिए अपनी चुप्पी तोड़ना भी।