Wednesday, July 6, 2011

परफ्यूम को लेडी वियाग्रा मनवाने की जिद



कहा जाता है सुगंध में सेक्स को उत्तेजित करने की शक्ति होती है। जब वैज्ञानिक शोध भी इसे सही मानते हैं तो नहीं मानने का कोइ कारण नहीं। लेकिन यह भी एक अदभुत सच्चाइ है कि आम जीवन में शायद ही कभी कोइ इसका अहसास कर पाता है। यह बात जरूर है कि सुगंध अच्छी लगती है, वातावरण को बेहतर बनाती है, लेकिन इतना भी बेहतर नहीं बनाती कि भला चंगा मनुष्य सेक्स के लिए बावला हो जाय। लेकिन हाल के वर्षों में टेलिविजन पर विभिन्न सुगंध सामग्रियों के विज्ञापन देखकर कोइ भी यह मानने को बाध्य हो सकता है कि भारत में महिलायें सुगंध से बावली हो जाती हैं और फिर अपने तन मन का होश खो बैठती हैं, उन्हें ना तो समय का होश रहता है ना ही व्यक्ति या संबंधों का। दिन भर में विभिन्न चानलों पर सैकड़ों बार प्रसारित हो रहे विज्ञापन यही मनवाने की कोशिश करते लगते हैं कि यहां सेक्स की उपलब्धता कितनी सहज है। यह भी इन विज्ञापनों के साथ अदभुत सच्चाइ है कि यह ना तो महिला आयोगों के नजर में खटक रहा है, ना ही देश के सुप्रिमो और चार महिला मुख्यमंत्रियों को।

जेड ए टी ए के, झटक हो या झटाक, तय रूप से यह लेडी वियाग्रा का कोइ प्रतिरूप नहीं है। बावजूद इस टल्कम पॉडर के दो-तीन अलग-अलग तरह के विज्ञापनों में इसका यही करामात प्रचारित किया जा रहा है। एक टेलर मास्टर का विज्ञापन है, जिसमें एक घरेलु महिला कपड़े सिलवाने अपना नाप दिलवाने आयी है, और टेलर का सहायक उसका नाप लेने वही पॉउडर लगाकर निकलता है। दर्जी का नाप लेने के लिए हाथ लगाते ही महिला को अपने शरीर पर बर्फ पिघलने का अहसास होता दिखता है, दर्जी का हाथ बहकते-बहकते उसके गर्दन और कानों तक पहुंचने लगता है, इसी के साथ बैकग्राउड से उत्तेजक सी आवाज आती रहती है, तेरे छूने से हो जाउफ खल्लास। अब यहां खल्लास का क्या अर्थ हो सकता है भारत में तो कोइ समाचार माध्यम इसे बताने की इजाजत नहीं दे सकता। पता नहीं यह अनायास है या पूरे सोच समझ के साथ यह विज्ञापन श्रृखला बनायी गइ है जिसमें टल्कम पॉउडर से प्रभावित होने वालों में घरेलु महिलायें भी हैं और कामकाजी भी दिखायी जाती हैं। सीधा सा मैसेज है आप टल्कम पॉउडर लगाकर निकलें सारी महिलायें आपको हासिल करने के लिए स्वत: बेचैन हो जायेंगी।

एक मरीज अपना दांत दिखाने लेडी डेन्टिस्ट के पास जाता है। सौभाग्य या दूर्भाग्य उस मरगिल्ले से मरीज ने ‘झटक’ लगा रखा। आगे विज्ञापन में वह बेचारा डरा-डरा सा दिखता है और डेन्टिस्ट उसे हासिल करने के लिए बेचैन। वह मरीज से कहती है जोर से सांस लो, और यह बताने के लिए स्वयं अपने सफेद कोट उतार कर जोर का सांस लेती है, इतनी जोर का कि उसके लाल टॉप के सारे बटन फड़फड़ा जाते हैं और फिर भारतीय टेलिविजन पर वह दिखता है जो शायद पूर्व में कभी नहीं दिखा था। इस तरह के विज्ञापनों में कामकाजी महिलाओं को खासतौर से निशाने पर लिया जाता रहा है।

विज्ञापन टूथपेस्ट के भी हो सकते हैं, डेयोडरेन्ट के भी या सिर्फ माउथ फ्रेशनर के, सुगंध हो गया तो फिर दर्शकों को मनवा दिया जाता है कि दुनिया की हरेक महिला उसके पीछे होगी। एक टूथपेस्ट के विज्ञापन में ड्रायविंग के वक्त शराब की जांच कर रही महिला अधिकारी को उसके सुगंधित सांसों से सुधबुध खोते दिखाया जाता है तो एक दूसरे विज्ञापन में महिला रेलवे टिकट चेकर एक विदाउट टिकट लड़के को पकड़ने के बजाय उसके सुगंधित सांसों पर इतना मुग्ध हो जाती है कि अपना काम बीच में ही छोड़कर उसे साथ लेकर चल देती है, कहां और क्यों? विज्ञापन में यह बताने की भी जरूरत नहीं होती, दर्शक समझ जाते हैं। क्या वाकइ अपने काम के प्रति महिलायें इतनी ही लापरवाह होती हैं? एक डेयोडरेन्ट के विज्ञापन में एक महिला कस्टम अधिकारी को किसी पुरूष की जांच करते हुए दिखाया जाता है, लेकिन सुगंध मिलते ही वह अपना होश खो देती है और उसके हाथ जांच के बजाय दूसरे तरीके से बहकने लगते हैं।

ये सारे विज्ञापन कोइ नये नहीं, वर्षों से चल रहे हैं, लोग देख रहे हैं स्वीकार कर रहे हैं। क्या यह हमारे सहमत होने का प्रतीक है कि वाकइ महिलायें मात्र सुगंध से इस हद तक उत्तेजित हो जाती हैं कि नैतिकता और सामाजिक सभ्यता की सारी समझ उनके लिए बेमानी हो जाती है। यदि वाकइ ऐसा है तो क्या लेडी वियाग्रा की तरह इस तरह के उत्पादों पर भी रोक नहीं लगना चाहिए?

क्रिकेट मैच के छौंक के साथ ऐडिक्शन डेयोडरेन्ट का एक विज्ञापन है, जिसमें किसी कॉलेज कैंटिन में टेलिविजन के आगे मैच देखने लड़कियों की भीड़ जुटी है। एक लड़का आता है उसे मैच देखने टीवी सेट के सामने की जगह खाली करवानी है, वह दूर खड़े एक लड़के के उपर डेयोडरेन्ट स्प्रे कर देता है। सुगंध पैफलते ही सारी लड़कियां क्रिकेट मैच छोड़कर उस लड़के पर टूट पड़ती हैं। हद तब हो जाती है जब वह लड़का मैच देखकर निकलते हुए फिर अपने उपर स्प्रे कर लेता है और लड़कियां अब उस लड़के छोड़कर इस लड़के को घेर लेती है। कार टूटकर दो हिस्से होने वाला विज्ञापन भी इस मायने में खासा दिलचस्प है जिसमें एक पॉप सिंगर के साथ जा रही उसकी डांसरों को नदी किनारे बैठे किसी व्यक्ति के डेयोडेरेन्ट की सुगंध आमंत्रित करता है। इस विज्ञापन में तो थोड़ी रचनात्मकता भी है, जो अपने आप में एक कहानी कहती है। लेकिन इस तरह के अधिकांश विज्ञापन में सिर्फ और सिर्फ एक ही चीज स्थापित की जाती है, चाहे आपका व्यक्तित्व कैसा भी हो, सुगंध आपने लगा लिया तो फिर लड़कियां आपको हासिल करने को बेचैन हो उठेंगी।

इस तरह के उत्पादों के विज्ञापनों में गौर तलब है कि सिर्फ एक डेयोडेरेन्ट का विज्ञापन जिसमें नील नितिन मुकेश लड़कियों से घिरे हुए नजर आते हैं, को छोड़ दे तो आम तौर पर सभी में नायक के रूप में सेलिब्रिटी की जगह किसी कमजोर दब्बू अतिसामान्य व्यक्तित्व वाले व्यक्ति का ही चुनाव किया गया है। निहितार्थ स्पष्ट है कि उन परफ्रयूम में इतनी ताकत है कि किसी मरगिल्ले से व्यक्ति पर भी औरतों को मर मिटने को बाध्य कर दे। निश्चय ही सेलिब्रिटी के या किसी आकर्षक माडल के रहने पर दर्शकों के मन में परफ्यूम की ताकत मानने में दुविधा हो सकती थी, उन्हें लग सकता था कि डेयोडेरेन्ट आकर्षक लोगों के साथ ही काम करता है। तय है विज्ञापन ऐजेन्सियां निशाने पर सबसे कमजोर व्यक्ति को लेना चाहती हैं ताकि परफ्यूम की जादूइ क्षमता और भी उभर कर दर्शकों को प्रभावित कर सके।

इसकी पराकाष्ठा या कहें सबसे घृणित रूप दिखता है सेट वेट डेयोडेरेन्ट के विज्ञापन में जब किसी पार्क में एक लड़की को अपने प्रेमी के साथ करीब होते दिखाया जाता है। संयोग से उन्हीं के बेंच की दूसरी तरफ बैठे एक भिखारी के झोले में उनकी डेयोडेरेन्ट की सीसी गिर जाती है। भिखारी अपने उपर डेयोडेरेन्ट स्प्रे कर लेता है। बस, बावली की तरह लड़की भिखारी पर सवार होकर उसके कपड़े खीचने लगती है। विज्ञापन निर्माताओं की अदभुत है यह समझ कि डेयोडेरेन्ट की सुगंध से महिलायें शारीरिक जरूरतों के प्रति इतनी उद्विग्न हो जाती हैं कि अपने सौंदर्यबोध तक से समझौते को तैयार हो जाती है। सुगंध के सामने सुन्दरता, स्वभाव, सफाइ सब गौण, क्या वाकइ महिलायें अपनी शारीरिक जरूरतों से इतनी मजबूर हो सकती हैं?

इसका जवाब हमारे देने का कोइ मतलब नहीं। जवाब देना चाहिए इन प्रोडक्ट के विज्ञापन ऐजेन्सियों को, उनके प्रसारण कर्ताओं को कि यदि इन स्थापनाओं से आप असहमत हैं तो फिर क्यों इसे अपने दर्शकों को मनवाने की जिद में लगे हैं। जवाब देना होगा महिलाओं के हित की बात कर रही संस्थाओं-संस्थानों को की यदि आप असहमत है तो फिर चुप क्यों हैं? जवाब हमें अपने आप में भी ढूंढना होगा कि क्या वाकइ महिलाओं को उनके शरीर से अलग कर देखने की शुरूआत हमने अभी भी नहीं की है?

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