Tuesday, June 21, 2011

दिल्ली ही चुप नहीं रहती



‘नो वन किल्ड जेसिका’ एक दृष्टांत भर है। फिल्म क्या है, कैसी है जरूरत इसपर जाने की नहीं, जरूरत सिर्फ इस बात को पहचानने की है कि आखिर क्यों इस तरह की घटनाओं पर एक नृशंस चुप्पी व्याप्त कर जाती है। यहां तक कि अधिकांश मामलों में पिड़ित के परिवार के ओर से भी मुखर प्रतिकार की जगह, चुप्पी को ही प्राथमिकता दी जाती है। बहाने भले ही डर के होते हो, वास्तव में डर तो तब होता है जब सामने कोइ खतरा हो। डर जब किसी खतरे के बगैर भी होने लगे तो मान लेना चाहिए यह डर हमारे स्वभाव में तबदील हो चुका है। दिल्ली चूंकि राष्ट्रीय राजधानी है, जाहिर है यहां की घटनाऐ तुरन्त सारे देश तक पहुंच ही नहीं जाती, उसे चिन्तित भी करती है। इसी लिए हाल के दिनों में जब दिल्ली में सरेआम लड़कियों की हत्या, बलात्कार, छेड़खानियों की घटनाओं में दैनंदिनी इजाफा हुआ तो सवाल उठा दिल्ली चुप रहती है। यहां तक कि मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने भी दिल्ली की इस चुप्पी पर अपना असंतोष व्यक्त किया। फलिस अधिकारियों को भी शह मिली और उन्होंने भी इस चुप्पी के लिए दिल्ली को लताड़ लगा दी। हालांकि दिल्ली को शर्मिंदा नहीं होना था, दिल्ली शर्मिंदा नहीं हुइ। दिल्ली को पता है यह चुप्पी उसने अकेले नहीं साध रखी। वह इस देश के स्वभाव का निर्वाह कर रही है। बात छेड़खानियों और बलात्कार का ही क्यों, गौर करें आखिर किस बात पर बोल रहे हैं हम?

भ्रष्टाचार पर रोज ब रोज नइ परतें खुल रही हैं। घोटाले की राशि अब लाखों से बढ़कर लाख करोड़ तक पहुंच चुकी है, शायद इतना कि कई देशों का भरण पोषण हो जाय। लेकिन हमारे लिए यह बात मात्र एक खबर होती है। हम निरपेक्ष भाव से जिसे सुन लेते हैं, पढ़ जाते हैं। शायद अधिकांश लोग चिंतित भी नहीं होते। गुस्सा होने की तो बात नहीं ही है। आश्चर्य नहीं कि अली से लेकर कलमाड़ी तक किसी के चेहरे पर कोइ शिकन नहीं दिखायी देती। पुलिस की पकड़ में जाते हुए उनकी तस्वीरों को देखकर यह अहसास करना मुश्किल होता है कि वे अपराधी के रूप में जा रहे हैं या सुरक्षा घेरे में किसी वी.वी.आइ.पी. के रूप में। चाहे चेहरे की चमक हो या कुरते की सफेदी, कहीं से भी अहसास नहीं होता कि इस देशद्रोह के प्रति उनके मन में कोइ पछतावा है। शायद इसी लिए देश उन्हें अपनी गलती का अहसास करवा ही नहीं पाता। गलती का अहसास किसी कानूनी कारवायी से नहीं आ सकता, उसका सामना हमेशा आसान होता है। उसके लिए तमाम दांव-पेंच है, वकील हैं, गवाह है, सबूत है। मुश्किल होता है अपने लोगों का सामना करना, जहां कोइ तर्क काम नहीं करता। बावजूद इसके सच यही है कि हमारी राष्ट्रीय चुप्पी किसी के सामने कभी कोइ मुश्किल खड़ी नहीं करती।

पटना में दिनदहाड़े स्कूली बस में लड़कियों के साथ छेड़खानी के लोग गवाह रहे हैं। मेरठ, आगरा, जौनफर जैसे शहरों में आए दिन लड़कियों के चेहरे पर तेजाब फेंकने की खबरे आती हैं। क्लास-रूम में घुसकर छेड़खानियों की खबर अब छोटे शहरों से ही ज्यादा आ रही है, याद करने की कोशिश करें, छात्रें से भरे कॉलेज में घुसकर प्राचार्य को तलवार से काट दिया जाता है। छात्रों का एक समूह प्राध्यापक की पीट-पीट कर हत्या कर देता है। कोर्इ नहीं बोलता। आखिर दिल्ली से ही क्यों उम्मीद रखी जाय बोलने की?

वास्तव में यह चुप्पी किसी शहर, किसी व्यक्ति की नहीं, अमूमन पूरे हिन्दुस्तानी मèयवर्ग की है। जो जरूरतों की अंधी दौड़ में अपने आपको बनाए रखने के लिए घोड़े वाला चश्मा पहन लेने की कोशिश करता है ताकि उसकी निगाहें ‘गैर जरूरी’ चीजों की ओर न जाये। आश्चर्य नहीं कि अपने बच्चों को प्राइमरी स्कूल से ही हम घुट्टी पिलाने की कोशिश करते हैं कि इधर-उधर की बातों पर कोर्इ ध्यान नहीं देना, सिर्फ पढ़ाइ करना। इस इधर-उधर का अर्थ उसके मन में इतना गहरा बैठ जाता है कि कक्षायें खाली रहने पर भी वह शिक्षक के सामने बोलने की हिम्मत नहीं जुटा पाता। न तो अपने मित्र के लिए किसी को पीट सकता है, न अपने मित्र से किसी पीटते बचा सकता है। यह ‘अच्छा बच्चा’ धीरे-धीरे ऐसा अच्छा नागरिक बन जाता है जिससे किसी को कोर्इ खतरा नहीं होता। वास्तव में यह ‘अच्छा नागरिक’ देश की आबादी में एक संख्या से ज्यादा की अहमियत नहीं रखता। जो अपनी जवाबदेही सिर्फ अपने प्रति सुरक्षित रखता है। जो अपनी भी बेटी के साथ छेड़खानी होती देख कहता है, छोड़ो जाने दो गुन्डों के मुह नहीं लगना। यह ‘अच्छा नागरिक’ दिल्ली में ज्यादा इसलिए दिखायी देता है कि दिल्ली में अपने आप को सुरक्षित समझने वाले लोग भी ज्यादा हैं। वह निश्चिंत रहता है कि घटना सामने वाले के साथ घट रही है वह पूरी तरह सुरक्षित है। जिस दिन देश में लोग असुरक्षित लोगों के साथ अपने को खड़ा कर देखने लगेंगे, उस दिन से चुप्पी भी टूट जायेगी। वे महसूस कर सकेंगे कि गुन्डों को मुह नहीं लगाकर वे अपने आप को सुरक्षित नहीं कर रहे हैं, बल्कि आने वाले भविष्य को भी असुरक्षित कर रहे हैं।

सवाल चुप्पी पर दूसरों से पूछने का नहीं, अपने आप से पूछने का है, पिछली बार हमने कब आवाज उठायी थी? मुख्यमंत्री जी कह रहीं हैं दिल्ली चुप रहती है। मुख्यमंत्री जी ही कहां बोल रही हैं, उनकी नाक के नीचे दुर्गन्ध मची है, कहां वे उसे साफ कर पा रही हैं? अपने अधिकारियों से भी तो वे पूछकर देखतीं कि उन्होंने अपने वरिष्ठ अधिकारियों या विधायकों यहां तक कि टूटपून्जीय नेताओं की ज्यादाती पर भी कब आवाज उठायी थी? उस देश में कैसे कोर्इ मुखर हो सकता है जहां प्रधानमंत्री के पद की सुरक्षा ही उसकी चुप्पी में निहित हो।

सोचना हमे पड़ेगा आखिर चुप रह कर हम क्या सुरक्षित रखना चाहते हैं? अपनी जान, अपनी समृद्धि, अपनी नौकरी, अपना घर,....? वास्तव में बचपन से ही हमारी जिन्दगी का सार सफलता और समृद्धि में समेट दिया जाता है। भारत की भौगोलिक स्थिति भी ऐसी है कि आम तौर पर यहां लोगों को चुनौतियों का सामना कम करना पड़ता है। चुनौतियां सामने आती है तो लोगों को एक दूसरे के साथ की जरूरत होती है, जैसी कोशी में दिखा था। जैसा आज जापान में दिख रहा है। जहां किसी की भी व्यक्तिगत समृद्धि चाहे जिस शिखर पर हो आज शून्य हो गयी है। अफसोस दूसरे के दुर्दिन से हम सबक नहीं लेते, नहीं तो हम अपनी इस निरपेक्षता पर फनर्विचार कर पाते कि आखिर किसी चीज को बचाने के लिए हमने चुप्पी साध रखी है। जीवन का अन्तिम सत्य एक दूसरे के साथ में है, एक दूसरे को बचाने में है। प्रकृति बार-बार हमे यह सिखाने की कोशिश करती है। अफसोस हम सीख नहीं पाते। भूल जाते हैं कि प्रकृति से सीख नहीं लेने वाले प्राणी को विलुप्त होते देर नहीं लगती। इतना तय मानलें धरती पर बचने वाले अन्तिम व्यक्ति हम नहीं होंगे। तो शायद जिन्दगी कुछ आसान हो जायगी। और हमारे लिए अपनी चुप्पी तोड़ना भी।

No comments:

Post a Comment