Friday, July 22, 2011

प्यार के लिए ये जगह ठीक नहीं



खबर पटना की है,लेकिन किसी भी शहर की हो सकती है।भरी दोपहरिया शहर के व्यस्ततम चौराहे पर एक शापिंग काम्पलेक्स में पुलिस कथित रुप से छापा मारती है और वहां चल रहे साइबर और रेस्टोरेंट से कई युवा किशोर जोडो को थाने उठा लाती है।अपराध ऐसा जिसके लिए भारतीय दंड संहिता में सजा का कोई प्रावधान नहीं।जाहिर है पुलिस को शाम होते होते होते सबों को रिहा कर देना पडता है,अखबारों में खबर आती है चेतावनी देकर छोड दिया गया।यदि अपराध है तो सजा होनी चाहिए,चेतावनी का अर्थ ही यही है कि पुलिस उनके अपराध अपने आइ पी सी की धाराओं में समेट ही नहीं सकी।समेट सकती भी नहीं थी।क्योंकि प्रेम भारतीय समाज में कभी भी अपराध माना ही नही गया ।इसीलिए शायद प्रेम पर आइ पी सी की धाराओं में कहीं चर्चा भी

नहीं हुई कि ,किस तरह प्रेम करना चाहिए,कितना प्रेम करना चाहिए,कहां प्रेम करना चाहिए,कितने प्रेम पर सजा हो सकती है,और कितने पर संदेह का लाभ मिल सकता है।लेकिन इससे मुश्किल यह हुई कि प्रेम एक ऐसा अपराध बन गया जिससे निबटने के लिए सभी ने अपने अपने नियम बना लिए ।दारोगा से लेकर सिटी एस पी तक ,सभी के पास प्रेम से निबटने को अलग अलग तरीके।कोई बीच पार्क में कान पकड उठक बैठक लगवा संतुष्ट हो लेता है तो कोई दो चार लाठियां लगा कर,कोई थाने ले जाकर उनके साथ अकनी फोटू खिंचवा कर खुश हो लेता है तो कोई उनके साथ उनके अभिभावकों को जलील कर।

लेकीन सच यह भी है कि शहर में युवा जोड़े अब दिखने अब आम हो गये हैं। सिनेमा घर हो, मार्केटिंग काम्पलेक्स हो, रेस्टोरेन्ट हो, म्युजियम हो या पार्क या फिर शहर की खुली पसरी सड़कें। युवा जोड़े आपका धयान खींच ही लेते हैं। खास बात यह है है कि इन कथित युवा जोड़ों में बडी संख्या टीन एजर्स की होती है। दिल पर हाथ रख कर कहें तो आकर्षक लगती है इनकी निकटता, इनका खुलापन और इनकी निडरता ...। कहीं न कहीं पचास के आस-पास वाली पीढ़ी के मन में यह फांस भी छोड़ जाती है कि काश, ऐसा खुलापन उनके समय में भी रहा होता। तो जो जिन्दगी उन्होंने सामने की छत को घूरते हुए बिता दी, वह कुछ और होती। यह ऐसी फांस होती है, जो व्यक्ति किसी से भी शेयर नहीं कर सकता, सिर्फ खुद पर खीझता है कि प्रेम के प्रति यह हिम्मत उसने क्यों नहीं जुटा पायी थी।

आज की पीढ़ी प्रेम के लिए हिम्मत जुटा रही है। प्रेम के साथ भी भारतीय समाज की यह अद्भुत दुविधा रही है कि एक ओर उसके खिलाफ लाठियां बल्लम भी निकलती रही हैं, दूसरी ओर इसकी पूजा भी होती रही है। प्रेम अच्छा है, यह सब कहते हैं। लेकिन ढ़ेर सारी अपनी शर्तों के साथ। ऐसे हो, इतना ही हो, इस तरह हो, इस उम्र में हो, ..... भाइ मेरे तो यह प्रेम क्या हुआ? लेकिन आमतौर पर भारतीय समाज में उसी प्रेम की स्वीकार्यता है जो पूर्णत: ‘नियमानुकुल’ हो।

पटना में प्रम के बढते प्रचलन को लेकर शिकायत मुख्यमंत्री तक भी पहुंच गइ, कि कुछ किजीये, लोग बहुत प्रेम करने लगे हैं। इतना प्रेम कि लोगों का जीना दूभर हो गया है। किसी भी समझदार व्यक्ति को भला प्रेम पर क्या आपत्ति हो सकती थी, मुख्यमंत्री को भी नहीं हुइ। लेकिन वह मुख्यमंत्री की समझ थी, कानून व्यवस्था का जिम्मा तो पुलिस के पास है.प्रेम पर समझ उसकी चलनी है,यदि पुलिस को साइबर में लडके लडकियों को एक साथ बैठकर अपने रिजल्ट देखने या आनलाइन फार्म भरने में भी प्रेम दिखता है तो उसकी सजा तो बनती ही है।साथ बैठकर काफी पीने ,हाथ पकडने या थोडे करीब होकर बातें करने में प्रेम दिखता है तो उसकी सजा तो मिलनी ही है। मुख्यमंत्री के चाहने से क्या होता है।

ऐसी बात नहीं कि जो लडके लडकियां पटना में या अन्य शहरों में इस परह के छापों में पकडे जाते हैं सारे के सारे आनलाइन फार्म ही भर होते हैं या काफी ही पी रहे होते हैं,हो सकता है उससे ज्यादा भी कुछ कर रहे हों।सवाल है क्या वाकई वह ज्यादा ऐसा कुछ है जो आई पी सी की धाराओं के अंतर्गत आता है।यदि नहीं तो क्यों माना नहीं जाय कि वास्तव में इस तरह के छापों में मूलतः प्रेम के प्रति उनकी कुंठा अभिव्यक्त होती है, या फिर खबरों में आने की भूख।

खबरों के अब विजु्अल चाहिए,खबर वही जो दिखे।जाहिर है पुलीस के रुटीन कामों में ,चोर का पकडने में,गश्त करने में में वह विजुअल नहीं बनता जो एक साथ दो दर्जन युवतियों को चेहरे छिपाते दिखने में बनता है।आखिर क्यों दिलचस्पी ले पुलिस अपने रुटीन कामों में।

गौरतलब है पटना में छापे के बाद कैमरे के सामने सिर्फ लडकियें का परेड लगवायी गई ,लडके या तो पकड में नहीं आए या फिर उनकी इज्जत का ख्याल कर उन्हें परेड से दूर रखा गया।पुलिस की शातुर समझ की यह हद थी कि परेड तब लगवायी गई जब किसी पर कोइ आरोप नहीं थे,सिर्फ पुलिस की समझ थी कि लडके लडकियां बैठे हैं तो कुछ गलत ही कर रहे होंगे। पटना जैसी छोटी जगह में बीच दोपहर किसी रेस्टोरेंट या साइबर जैसी सार्वजनिक जगह पर कोइ कितना गलत कर सकता है।आश्चर्य नहीं कि उनके अभिभावकों को थाने बुलाया गया और चेतावनी देकर छोड दिया गया। पुलिस की समझ से यह एक सामान्य सी कार्रवाई हो सकती है,लेकिन लडकियों और उनके अभिभावकों के लिए यह छोटी सी घटना कितनी बडी नर्क साबीत होगी ,शायद पटना की वह महिला पुलिस अधिकारी अपनी क्षणिक वाहवाही में सोच भी नहीं सकी होगी।क्योंकि सोचने के लिए संवेदना चाहिए,समझ चाहिए।कतार में खडी लडकियों और सडकों पर जमा भीड की तीखी निगाहें ,हम उम्मीद कर सकते हैं जलालत की।लेकिन प्रेम के प्रति पुर्वाग्रह जब अपनी ही बहनों और बटियों की हत्या केलिए हमें तैयार कर देता है तो फिर पुलिस सेही क्यों प्रेम के प्रति सौजन्यता की उम्मीद रखें।

वास्तव में आज जब एक ओर बाजार ,सिनेमा, टेलीविजन,और विज्ञापन हर क्षण प्रेम को प्रेरित कर रहा हो ,जरुरी है कि नई पीढी पर भरोषा करते हुए उसके बिगडने को बरदाश्त करें या फिर प्रेम को पारिभाषित कर इसके लिए आइ पी सी में जगह ही बना दें।कम से कम प्रेम करने वाले को यह तो पता रहे कि वे एक गैरकानूनी काम कर रहे हैं।

Tuesday, July 19, 2011

लौट रहे हैं रिकार्ड


बा गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकार्ड की नहीं, बात हो रही है काले तवे जैसी रिकार्ड की, जो ग्रामोफोन की तीखी सुइ चुभते ही सुर के मनचाहे तार छेड़ देती। उस्ताद बड़े गुलाम अली खां के आलाप से लेकर विस्मिल्लाह खान की शहनाइ तक, के. एल. सहगल के दर्द भरे नग्मे से लेकर लता बाई के सुरीले फिल्मी गीत तक। कोठे की झंकार से लेकर मोर्चे के मार्चिंग सांग तक, सब कुछ छिपा होता है उस काले तवे पर खिंची वृताकार महीन लकीरों में। बचपन में वाकइ हमारे लिए वह किसी जादू से कम नहीं होता, जब बगैर पंडित जी के आए घर में सत्यनारायण भगवान की कथा गूंजने लगती। हम किसी अजूबे की तरह उस छोटे से मख्मली बक्से को देखते रहते जिसमें लगी चाभी को थोड़ी सी जुम्बिश देते ही उपर का तवा घूमने लगता और उसी के साथ आने लगती मनचाही आवाजें। न कोइ तार, न केबल, न कमरे भर में पसरे ताम-झाम, एकदम पोर्टेबल, चाहें तो नदी के किनारे ले जायें या गर्मी की शाम छत पर। बाद में शायद इसी की पोर्टबिलिटी को ध्यान में रखकर ट्रांजिस्टर से लेकर आइ.पॉड तक के आविष्कार हुए होंगे, लेकिन इन तमाम आधुनिकतम उत्पादों के सामने भी ग्रामोफोन की एक विशेषता ने उसे अतुलनीय बनाए रखा, वह था उसका उर्जा संरक्षण।
              आश्चर्य नहीं कि कइ पुराने आविष्कार, बिजली वाले बड़े रेडियो से लेकर आधे कमरे की जगह घेर लेने वाला दरवाजे लगा ब्लैक एंव व्हाइट टेलीविजन तक पूरी तरह दृश्य से ओझल हो गए, ग्रामोफोन ने अपनी उपस्थिति कायम रखी। वास्तव में समय-सभ्यताएं बदलने के बावजूद इसका वाजिब विकल्प अभी तक हमें हासिल नहीं हो सका है। आज भी सिनेमा या टेलीविजन धारावाहिकों में जब भी परम्परागत अमीरी दिखाइ जानी होती है, ग्रामोफोन बैठक की अनिवार्यता होते हैं। अब तो कइ आधुनिक उत्पादों के विज्ञापनों में भी ग्रामोफोन को युवाओं के स्टेट्स सिंबल के रूप में जोड़ने की कोशिश की जा रही है। वास्तव में कहीं न कहीं ग्रामोफोन हमारी समृद्धि के साथ हमारी समझ को भी प्रतिबिम्वित करता है। किसी अत्याचारी सामंत के महलों की दिवार पर दोनाली बंदूकें भले ही टंगी दिखाइ जाती है, वहां तमाम समृद्धि के बावजूद ग्रामोफोन नहीं होता, ग्रामोफोन दिखाने के साथ ही यह स्टैबलिश हो जाता है, यहां रहने वाला व्यक्ति भावुक, संवेदनशील और संगीत प्रेमी है।
              जाहिर है हमारी संवेदनशीलता का यह प्रतीक समय के झकोरों से हमारी जिंदगी से किनारे तो होता रहा, कभी बाहर नहीं हो सका। आश्चर्य नहीं कि आज नई सदी के पहले दशक के अंत में एक बार फिर ग्रामोफोन के सुर सुनाइ देने लगे हैं। गौरतलब यह भी है कि ग्रामोफोन रिकार्ड का संगीत की दुनिया से बेदखल करने का दम भरनेवाला कैसेट आज खुद बेदखल होने के कगार पर पहुंच चुका है। आइ पॉड के सुविधाजनक संगीत और सीडी के टिकाउपन ने कैसेट और कैसेट रिकार्डर दोनों को ही संगीत के लिए अप्रसांगिक बना दिया है, लेकिन रिकार्डस इन दोनों का मुकाबला करते आज फिर वापस आ रही है तो उसका मुख्य कारण उसमें इन दोनों के गुणों का समावेश है, टिकाउपन भी और पोर्टेब्लिटी भी। सबसे बढ़कर संगीत की बारीकियां का निर्वाह भी।
              संगीत के जानकार बताते हैं कि अत्याधुनिक यंत्रों के डिजीटल संगीत और ग्रामोफोन के संगीत में वही फर्क है जो वास्तविक सितार के बजाय मशीन से सितार की आवाज का संगत लेने में है। सहुलियत के लिए हालांकि बड़े-बड़े संगीतकार अब संगत के लिए मशीन के आवाज का सहारा लेने लगे हैं, लेकिन वे भी मानते हैं कि यह संगीत के साथ इमानदारी नहीं है। रिकार्डिंग के डिजीटल रूपांतरण में कहा जाता है उसकी मानवीय संवेदना का लोप हो जाता है, आवाज मशीनी लगने लगती है, जबकि ग्रामोफोन के रिकार्ड्स में संगीत और सुर अपने स्वाभाविक रूप में होते हैं। सुर के हरेक आलाप के उतार-चढ़ाव का आनन्द आप उठा सकते हैं। शायद इसीलिए आज जब लोग प्लेइंग रिकार्ड्स की नइ खेप आने लगी है उसमें प्राथमिकता शास्त्रीय या क्लासिक संगीत को दी जा रही है। सिर्फ 2010 में इ. एम. आइ. म्यूजिक कंपनी ने शास्त्रीय और सुगम संगीत के 125 से भी अधिक टाइटिल रिलीज किए हैं।
              भारत में हालांकि संगीत को आमतौर से सिनेमा से जोड़कर देखे जाने की परम्परा रही है, लेकिन गौर तलब है कि यहां सिनेमा को आवाज 1931 में मिली, लेकिन संगीत के रिकार्ड का व्यावसायिक निर्माण 1902 में ही शुरू हो गया था। भारत में पहली रिकार्डिंग कंपनी कोलकाता में बनी, तत्कालीन कलकत्ता। भ्रम यह होता है कि शायद इसके पीछे वजह बंगाल का संगीत प्रेम हो, लेकिन वास्तविकता व्यापार की बुनियाद पर टिकी है। रिकार्ड्स की निर्माण प्रक्रिया में एक अनिवार्य तत्व है ‘लाख’। मूल रिकार्डिंग वैक्स या जिंक पर की जाती है, फिर लाख के प्लेट पर प्रेस कर उसकी प्रतिकृति तैयार कर व्यवसायिक उत्पादन होता है। गौर तलब है कि विश्व में लाख के उत्पादन में 75 प्रतिशत भागीदारी अकेले भारत की है, और उसमें भी सर्वाधिक बंगाल की। कहते हैं पहले विश्वयुद्ध के समय में दुनिया भर की रिकार्ड कंपनियां पूरी तरह भारत पर निर्भर हो गई थीं। लाख की उपलब्धता ने बंगाल को पहला रिकार्ड कारखाना दिया 1908 में। कहते हैं उस समय रिकार्ड कंपनी में काम करने वाले मजदूर अपने कारखाने को ‘बाजाखाना’ कहते थे, रिकार्ड के कारखाने के लिए यह भारतीय नाम स्वाभाविक भी था।
              समय-समय पर उत्पादन और क्वालिटी में बेहतरी को ध्यान में रखकर रिकार्ड उत्पादन की तकनीक में संशोधन होते गए। इलेक्ट्रीकल टेक्नोलाजी आयी, कार्बन का इस्तेमाल होने लगा, अब मुख्यता विनाइल पर रिकार्ड के उत्पादन हो रहे हैं। पहले थोड़े-थोड़े समय के रिकार्ड बनते थे, टेक्नॉलाजी बढ़ी तो लांग प्लेइंग रिकार्ड्स का प्रचलन शुरू हो गया। भारत में पहले एल. पी. रिकार्ड प्लेट की शुरूआत भी 1959 में कोलकाता में हुई, स्वाभाविक है जिसका उद्घाटन सितारवादक पं. रविशंकर ने किया। और जून 1959 में उन्हीं की संगीत के साथ वहीं से पहला एल. पी. रिकार्ड निकला भी।
              जो भी हो, लेकिन इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि एल. पी. रिकार्ड्स को लोकप्रियता दिलाने में सिनेमा संगीत की विशिष्ट भूमिका रही। कह सकते हैं सिनेमा संगीत की ही नहीं, पूरे सिनेमा की। ‘शोले’ के संवादों के एल. पी. ने अपने समय में लोकप्रियता के नए आयाम कायम किए थे। कहा जाता है जब ‘शोले’ के रिकार्ड्स ग्रामोफोन पर बजने शुरू होते थे तो सड़कों पर भीड़ उसे सुनने ठहर जाती थी। ‘शोले’ की लोकप्रियता से प्रभावित कई और फिल्मों के रिकार्ड निकाले गए लेकिन ‘शोले’ वाली बात दुहरायी नहीं जा सकी।
              रिकार्ड्स के प्रचलन की वापसी को ध्यान में रखकर फिल्मकारों ने भी नए सिरे से इस माध्यम को तरजीह देने की शुरूआत की है। अक्टूबर 2010 में ‘सा रे गा मा’ ने जान अब्राहम की फिल्म ‘झूठा ही सही’ के एल. पी. के साथ 13 साल बाद रिकार्ड बाजार में दस्तक दी। इसके पूर्व 1997 में यश चोपड़ा की फिल्म ‘दिल तो पागल है’ के रिकार्ड ही बाजार में आए थे। इस बाजार की लोकप्रियता को ध्यान में रखकर टी सिरीज ने भी अपनी फिल्म ‘तीस मार खान’ और ‘पटियाला हाउस’ के एल. पी. रिकार्ड्स निकाले। सिनेमा संगीत के प्रेमियों के लिए ये रिकार्ड अनिवार्यता भले ही न हो, स्टेट्स सिंबल तो जरूर बन रहे हैं। इसका एक कारण इसकी दुर्लभता और इसकी मंहगी कीमत भी है।
              एक ओर एक से.मी. के आकार के पेनड्राइव में पूरी फिल्म दूसरी ओर बड़ा सा एल. पी. रिकार्ड, जिसकी कीमत में दर्जनभर से ज्यादा डीवीडी खरीदे जा सकते हैं। इसके प्रति यदि आज के युवा भी आकर्षित हो रहे हैं तो इसकी बजह सिर्फ संगीत की क्वालिटी और परम्परा से लगाव ही नहीं, कहीं न कहीं अपनी कमाई के अतिरेक का प्रदर्शन भी है। वास्तव में व्यापार और कारपोरेट जगत ने आज युवाओं की एक बिरादरी को इतनी समृद्धि दे दी है, जो कि उन्हें खर्च के बहाने ढ़ूंढने पड़ रहे हैं। निश्चित रूप से जब ‘पटियाला हाउस’ और ‘तीस मार खान’ के तात्कालिक लोकप्रियता के लिए कोई अनिवार्य जरूरत से सौ गुनी ज्यादा कीमत चुकाने को तैयार हो तो स्पष्ट लगता है रिकार्ड की वापसी का वाजिब कारण नहीं।
              लेकिन एक सच यह भी है रिकार्ड संगीत के मानवीयता का प्रतीक है। उस्ताद बड़े गुलाम अली खां या उस्ताद अली अकबर खां या फिर सहगल का दिल टूटना एक से.मी. के पेनड्राइव में उतना ही हास्यास्पद हो जाता है जितना तीस मार खान को बड़े से एल. पी. पर प्रतिष्ठित देखना। उम्मीद है आने वाले दिनों में एल. पी. की पहचान संगीत के अनिवार्यता के लिए होगी, स्टेट्स सिंबल के लिए नहीं। वास्तव में एल. पी की यह पहचान उसे बेसुरा कर देगी।



Wednesday, July 6, 2011

परफ्यूम को लेडी वियाग्रा मनवाने की जिद



कहा जाता है सुगंध में सेक्स को उत्तेजित करने की शक्ति होती है। जब वैज्ञानिक शोध भी इसे सही मानते हैं तो नहीं मानने का कोइ कारण नहीं। लेकिन यह भी एक अदभुत सच्चाइ है कि आम जीवन में शायद ही कभी कोइ इसका अहसास कर पाता है। यह बात जरूर है कि सुगंध अच्छी लगती है, वातावरण को बेहतर बनाती है, लेकिन इतना भी बेहतर नहीं बनाती कि भला चंगा मनुष्य सेक्स के लिए बावला हो जाय। लेकिन हाल के वर्षों में टेलिविजन पर विभिन्न सुगंध सामग्रियों के विज्ञापन देखकर कोइ भी यह मानने को बाध्य हो सकता है कि भारत में महिलायें सुगंध से बावली हो जाती हैं और फिर अपने तन मन का होश खो बैठती हैं, उन्हें ना तो समय का होश रहता है ना ही व्यक्ति या संबंधों का। दिन भर में विभिन्न चानलों पर सैकड़ों बार प्रसारित हो रहे विज्ञापन यही मनवाने की कोशिश करते लगते हैं कि यहां सेक्स की उपलब्धता कितनी सहज है। यह भी इन विज्ञापनों के साथ अदभुत सच्चाइ है कि यह ना तो महिला आयोगों के नजर में खटक रहा है, ना ही देश के सुप्रिमो और चार महिला मुख्यमंत्रियों को।

जेड ए टी ए के, झटक हो या झटाक, तय रूप से यह लेडी वियाग्रा का कोइ प्रतिरूप नहीं है। बावजूद इस टल्कम पॉडर के दो-तीन अलग-अलग तरह के विज्ञापनों में इसका यही करामात प्रचारित किया जा रहा है। एक टेलर मास्टर का विज्ञापन है, जिसमें एक घरेलु महिला कपड़े सिलवाने अपना नाप दिलवाने आयी है, और टेलर का सहायक उसका नाप लेने वही पॉउडर लगाकर निकलता है। दर्जी का नाप लेने के लिए हाथ लगाते ही महिला को अपने शरीर पर बर्फ पिघलने का अहसास होता दिखता है, दर्जी का हाथ बहकते-बहकते उसके गर्दन और कानों तक पहुंचने लगता है, इसी के साथ बैकग्राउड से उत्तेजक सी आवाज आती रहती है, तेरे छूने से हो जाउफ खल्लास। अब यहां खल्लास का क्या अर्थ हो सकता है भारत में तो कोइ समाचार माध्यम इसे बताने की इजाजत नहीं दे सकता। पता नहीं यह अनायास है या पूरे सोच समझ के साथ यह विज्ञापन श्रृखला बनायी गइ है जिसमें टल्कम पॉउडर से प्रभावित होने वालों में घरेलु महिलायें भी हैं और कामकाजी भी दिखायी जाती हैं। सीधा सा मैसेज है आप टल्कम पॉउडर लगाकर निकलें सारी महिलायें आपको हासिल करने के लिए स्वत: बेचैन हो जायेंगी।

एक मरीज अपना दांत दिखाने लेडी डेन्टिस्ट के पास जाता है। सौभाग्य या दूर्भाग्य उस मरगिल्ले से मरीज ने ‘झटक’ लगा रखा। आगे विज्ञापन में वह बेचारा डरा-डरा सा दिखता है और डेन्टिस्ट उसे हासिल करने के लिए बेचैन। वह मरीज से कहती है जोर से सांस लो, और यह बताने के लिए स्वयं अपने सफेद कोट उतार कर जोर का सांस लेती है, इतनी जोर का कि उसके लाल टॉप के सारे बटन फड़फड़ा जाते हैं और फिर भारतीय टेलिविजन पर वह दिखता है जो शायद पूर्व में कभी नहीं दिखा था। इस तरह के विज्ञापनों में कामकाजी महिलाओं को खासतौर से निशाने पर लिया जाता रहा है।

विज्ञापन टूथपेस्ट के भी हो सकते हैं, डेयोडरेन्ट के भी या सिर्फ माउथ फ्रेशनर के, सुगंध हो गया तो फिर दर्शकों को मनवा दिया जाता है कि दुनिया की हरेक महिला उसके पीछे होगी। एक टूथपेस्ट के विज्ञापन में ड्रायविंग के वक्त शराब की जांच कर रही महिला अधिकारी को उसके सुगंधित सांसों से सुधबुध खोते दिखाया जाता है तो एक दूसरे विज्ञापन में महिला रेलवे टिकट चेकर एक विदाउट टिकट लड़के को पकड़ने के बजाय उसके सुगंधित सांसों पर इतना मुग्ध हो जाती है कि अपना काम बीच में ही छोड़कर उसे साथ लेकर चल देती है, कहां और क्यों? विज्ञापन में यह बताने की भी जरूरत नहीं होती, दर्शक समझ जाते हैं। क्या वाकइ अपने काम के प्रति महिलायें इतनी ही लापरवाह होती हैं? एक डेयोडरेन्ट के विज्ञापन में एक महिला कस्टम अधिकारी को किसी पुरूष की जांच करते हुए दिखाया जाता है, लेकिन सुगंध मिलते ही वह अपना होश खो देती है और उसके हाथ जांच के बजाय दूसरे तरीके से बहकने लगते हैं।

ये सारे विज्ञापन कोइ नये नहीं, वर्षों से चल रहे हैं, लोग देख रहे हैं स्वीकार कर रहे हैं। क्या यह हमारे सहमत होने का प्रतीक है कि वाकइ महिलायें मात्र सुगंध से इस हद तक उत्तेजित हो जाती हैं कि नैतिकता और सामाजिक सभ्यता की सारी समझ उनके लिए बेमानी हो जाती है। यदि वाकइ ऐसा है तो क्या लेडी वियाग्रा की तरह इस तरह के उत्पादों पर भी रोक नहीं लगना चाहिए?

क्रिकेट मैच के छौंक के साथ ऐडिक्शन डेयोडरेन्ट का एक विज्ञापन है, जिसमें किसी कॉलेज कैंटिन में टेलिविजन के आगे मैच देखने लड़कियों की भीड़ जुटी है। एक लड़का आता है उसे मैच देखने टीवी सेट के सामने की जगह खाली करवानी है, वह दूर खड़े एक लड़के के उपर डेयोडरेन्ट स्प्रे कर देता है। सुगंध पैफलते ही सारी लड़कियां क्रिकेट मैच छोड़कर उस लड़के पर टूट पड़ती हैं। हद तब हो जाती है जब वह लड़का मैच देखकर निकलते हुए फिर अपने उपर स्प्रे कर लेता है और लड़कियां अब उस लड़के छोड़कर इस लड़के को घेर लेती है। कार टूटकर दो हिस्से होने वाला विज्ञापन भी इस मायने में खासा दिलचस्प है जिसमें एक पॉप सिंगर के साथ जा रही उसकी डांसरों को नदी किनारे बैठे किसी व्यक्ति के डेयोडेरेन्ट की सुगंध आमंत्रित करता है। इस विज्ञापन में तो थोड़ी रचनात्मकता भी है, जो अपने आप में एक कहानी कहती है। लेकिन इस तरह के अधिकांश विज्ञापन में सिर्फ और सिर्फ एक ही चीज स्थापित की जाती है, चाहे आपका व्यक्तित्व कैसा भी हो, सुगंध आपने लगा लिया तो फिर लड़कियां आपको हासिल करने को बेचैन हो उठेंगी।

इस तरह के उत्पादों के विज्ञापनों में गौर तलब है कि सिर्फ एक डेयोडेरेन्ट का विज्ञापन जिसमें नील नितिन मुकेश लड़कियों से घिरे हुए नजर आते हैं, को छोड़ दे तो आम तौर पर सभी में नायक के रूप में सेलिब्रिटी की जगह किसी कमजोर दब्बू अतिसामान्य व्यक्तित्व वाले व्यक्ति का ही चुनाव किया गया है। निहितार्थ स्पष्ट है कि उन परफ्रयूम में इतनी ताकत है कि किसी मरगिल्ले से व्यक्ति पर भी औरतों को मर मिटने को बाध्य कर दे। निश्चय ही सेलिब्रिटी के या किसी आकर्षक माडल के रहने पर दर्शकों के मन में परफ्यूम की ताकत मानने में दुविधा हो सकती थी, उन्हें लग सकता था कि डेयोडेरेन्ट आकर्षक लोगों के साथ ही काम करता है। तय है विज्ञापन ऐजेन्सियां निशाने पर सबसे कमजोर व्यक्ति को लेना चाहती हैं ताकि परफ्यूम की जादूइ क्षमता और भी उभर कर दर्शकों को प्रभावित कर सके।

इसकी पराकाष्ठा या कहें सबसे घृणित रूप दिखता है सेट वेट डेयोडेरेन्ट के विज्ञापन में जब किसी पार्क में एक लड़की को अपने प्रेमी के साथ करीब होते दिखाया जाता है। संयोग से उन्हीं के बेंच की दूसरी तरफ बैठे एक भिखारी के झोले में उनकी डेयोडेरेन्ट की सीसी गिर जाती है। भिखारी अपने उपर डेयोडेरेन्ट स्प्रे कर लेता है। बस, बावली की तरह लड़की भिखारी पर सवार होकर उसके कपड़े खीचने लगती है। विज्ञापन निर्माताओं की अदभुत है यह समझ कि डेयोडेरेन्ट की सुगंध से महिलायें शारीरिक जरूरतों के प्रति इतनी उद्विग्न हो जाती हैं कि अपने सौंदर्यबोध तक से समझौते को तैयार हो जाती है। सुगंध के सामने सुन्दरता, स्वभाव, सफाइ सब गौण, क्या वाकइ महिलायें अपनी शारीरिक जरूरतों से इतनी मजबूर हो सकती हैं?

इसका जवाब हमारे देने का कोइ मतलब नहीं। जवाब देना चाहिए इन प्रोडक्ट के विज्ञापन ऐजेन्सियों को, उनके प्रसारण कर्ताओं को कि यदि इन स्थापनाओं से आप असहमत हैं तो फिर क्यों इसे अपने दर्शकों को मनवाने की जिद में लगे हैं। जवाब देना होगा महिलाओं के हित की बात कर रही संस्थाओं-संस्थानों को की यदि आप असहमत है तो फिर चुप क्यों हैं? जवाब हमें अपने आप में भी ढूंढना होगा कि क्या वाकइ महिलाओं को उनके शरीर से अलग कर देखने की शुरूआत हमने अभी भी नहीं की है?